बस है पन्द्रह आठ सैंतालिस नम्बर की

Dec 29, 2006

लुटी फिर बस है पन्द्रह आठ सैंतालिस नम्बर की,
फटी सीटें हैं कुछ गायब हुए हैं पेंच पहियों के,

मैं सुनता हूँ कि जीडीपी बढ़ा सनसेक्स उछला है,
हमारे घर के अन्दर हाल हैं बेहाल कइयों के,

कोई कहता है बीमारू कोई पिछड़ा बताता है,
भला सुधरेंगे दिन कैसे मेरे भारत में भइयों के,

वो सूखा पेड़ मुझसे कह रहा था एक दिन प्यारे,
कभी मेरी भी शाखों पर घरौंदे थे चिर्इयों के,

2 प्रतिक्रियाएं:

Anonymous said...

वो सूखा पेड़ मुझसे कह रहा था एक दिन प्यारे,
कभी मेरी भी शाखों पर घरौंदे थे चिर्इयों के,


--वाह, बहुत खुब.यह शेर खुब पसंद आया.

Anonymous said...

वही अब कंस बन कर ताव देते मूँछ पर अपनी
जिन्हें समझा था रखवाले, बिरज में हमने गईयों के

एक सशक्त रचना के लिये बधाई अभिनव.

सस्नेह