अकेले रहते हैं हम लोग,
साथ में लगा लिए हैं रोग,
फंस गए हैं जंजालों में,
रह पाएंगे आखिर कैसे हम घरवालों में,
कि बिछुड़े पंछी हैं।
आज हैं अपने घर से दूर,
भले कितने भी हों मश्हूर,
हो दौलत भले ज़माने की,
हैं खुशियां सिर्फ दिखाने की,
याद जब मां की आती है,
रात कुछ कह कर जाती है,
ह्रदय में खालीपन सा है,
लौट चलने का मन सा है,
मगर हैं घिरे सवालों में,
रह पाएंगे आखिर कैसे हम घरवालों में।
वहां पर लाइट जाती है,
काम वाली सिर खाती है,
गर्मी में बच्चे रोते हैं
वहां पर दंगे होते हैं,
वो ट्रैफिक कितना गन्दा है,
हर तरफ गोरख धन्धा है,
वहां सड़कों में नाली है,
वहां बातों में गाली है,
वहां गांधी हैं खादी है,
वहां कितनी आबादी है,
सभी दौलत के भूखे हैं,
लोग सब कितने रूखे हैं,
यहां मुस्काते मिलते हैं,
फूल सब सुंदर खिलते हैं,
यहां दिन रात सुहाने हैं,
और भी लाख बहाने हैं,
मन में पलते घोटालों में,
रह पाएंगे आखिर कैसे हम घरवालों में।
हमारे दिल का सपना है,
देश जैसा है अपना है,
भले तूफान हैं आंधी हैं,
बच्चों के दादा दादी हैं,
जहाँ परियों की कहानी है,
जहाँ गंगा का पानी है,
जहाँ केसर है घाटी में,
जहाँ खुशबू है माटी में,
जहाँ कोयल की कुहकू है,
आम का मीठा सा फल है,
जहाँ मन्दिर का पीपल है,
जहाँ मौसम में जादू है,
जहाँ रोटी है फूली सी,
जहाँ गलियां हैं भूली सी,
जहाँ पर रेल का फाटक है,
जहाँ खुशियाँ हैं नाटक है,
मोहब्बत का सावन सा है,
जहाँ पर अपनापन सा है,
मन से आवाज़ ये आती है,
चलो अब चलें कमालों में,
रहना सीख ही जाएँगे अपने घरवालों में।
अभिनव
महा लिख्खाड़
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नाप तोल
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अकेले रहते हैं हम लोग
Sep 21, 2006
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7 प्रतिक्रियाएं:
चरखे का तकुआ और पूनी
बरगद के नीचे की धूनी
पत्तल कुल्लड़ और सकोरा
तेली का बजमारा छोरा
पनघट पायल और पनिहारी
तुलसी का चौरा,फुलवारी
पिछवाड़े का चाक कुम्हारी
छोटे लल्लू की महतारी
ढोल नगाड़े, बजता तासा
महका महका इक जनवासा
धिन तिन करघा और जुलाहा
जंगल को जाता चरवाहा
रहट खेत, चूल्हा व अंगा
फ़सल कटे का वह हुड़दंगा
हुक्का पंचायत, चौपालें
झूले वाली नीम की डालें
वावन गजी घेर का लहँगा
मुँह बिचका, दिखलाना ठेंगा
एक पोटली, लड़िया, छप्पर
माखन, दही टँगा छींके पर
नहर,कुआं, नदिया की धारा
कुटी, नांद, बैलों का चारा
चाचा ताऊ, मौसा मामा
जय श्री कॄष्णा, जय श्री रामा
मालिन,ग्वालिन,धिबिन,महरी
छत पर अलसी हुई दुपहरी
एक एक कर सहसा सब ही
संध्या के आँगन में आये
किया अजनबी जिन्हें समय ने
आज पुन: परिचित हो आये
वर्तमान ढल गया शून्य में
खुली सुनहरी पलक याद की
फिर से लगी महकने खुशबू
पूरनमासी कथा पाठ की
शीशे पर छिटकी किरणों की
चकाचौंध ने जिन्हें भुलाया
आज अचानक एकाकीपन, में
वह याद बहुत हो आया.
अभिनव भाई,
बहुत सुंदर कविता है ।
रीतेश गुप्ता
बढिया है.कुछ लाइनों की चर्बी छांट दो और कुछ का वजन बढा दो फिर ये कविता और धांसू बन जायेगी.हर प्रवासी के लिये 'नास्टैल्जिक आधार'.बधाई.
अच्छी कविता है और राकेश जी ने भी क्या कमाल का लिखा है
अभिनव जी,बडे खूबसूरत ढँग से आपने भावों को लिखा है.आपकी कुछ अन्य कविताएँ भी पढीं..जो बाकी रह गइ है उन्हे भी जल्दी ही पढूँगी..लेखन शैली मुझे पसँद आई.
यथार्थता का सही चित्रण ।
Hum bhi wapas jaayenge ka doosra pehloo accha laga;-)
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