मुझे अपनी मां में,
और अपनी पत्नी की सास में,
अंतर दिखाई देने लगा है,
माँ,
ईश्वर का रूप है,
सर्दियों की गुनगुनी धूप है,
सास,
कुछ अनकहा आभास है,
एक असहज एहसास है,
खरी खरी बात, कुछ यहाँ वहां नहीं,
माँ में सास नहीं है, सास में माँ नहीं.
मुझे एक बेटी में,
और अपनी माँ की बहू में भी,
अंतर
दिखाई देने लगा है,
बेटी,
खुशबू से घर महकाती है,
सितारों सी जगमगाती है,
बहू,
मन की बात कहते डरती है,
पीछे खुटुर -
पुटुर करती है,
सीधी सीधी बात, कोई लाग लपेटी नहीं,
बेटी में बहू नहीं है, बहू में बेटी नहीं.
ऐसे में अपना होता है कुछ ऐसा ही हाल,
जैसे दो चीनियों के मध्य फँसी को कोई पिंग पांग बाल,
इससे पहले कि बाल कि रेड़ पिट जाए,
मैं चाहता हूँ कि ये अंतर मिट जाए,
पर, इसके लिए माँ को सिर्फ माँ रहना होगा,
और बहू को बिटिया बन कर जीवन कि धारा में बहना होगा,
अन्यथा, युगों युगों से चल रहा खेल जारी रहेगा,
तथा, माँ पर सास का, और बेटी पर बहू के प्रकोप तारी रहेगा.
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः !