एक बार लखनऊ से इलाहबाद जाते समय एक मजदूरनी सामने आ कर बैठ गयी. उसे आस पास के सभी लोगों नें बड़ी हेय दृष्टि से देखा और सब थोडा थोडा सरक गए. न जाने तभी कहाँ से ये भाव उड़ते हुए आये और काग़ज़ पर उतर गए.
इनका रूप संवर सकता है
अगर शुष्कता से मरुथल की, अधरों पर न पर्त पड़े,
और रेत की आंधी से, न इन केशों का रंग उड़े,
अगर हाथ पत्थर न बन जाएँ चट्टानों से लड़कर,
और रंग न बदले चमड़ी ऊँचे पर्वत पर चढ़कर,
और रेत की आंधी से, न इन केशों का रंग उड़े,
अगर हाथ पत्थर न बन जाएँ चट्टानों से लड़कर,
और रंग न बदले चमड़ी ऊँचे पर्वत पर चढ़कर,
अगर कंठ में लटकी चाँदी, सोने जैसी चमक सके,
और आवरण में जीवन के, आ फूलों की महक सके,
अगर आँख के गड्ढों की कालिख न आँखों में झलके,
और पेट की भूख यहाँ पल पल न बच्चों में ढलके,
तो फिर हर जलयान, अनोखे भवसागर से तर सकता है,
इनका रूप संवर सकता है,
इनका रूप संवर सकता है.....
पुनश्च: ये रचना कुछ वर्षों पहले लिखी थी, अब कहाँ इलाहबाद, कहाँ लखनऊ और कहाँ हम. बस स्मृतियाँ हैं.
3 प्रतिक्रियाएं:
बहुत संवेदनशील रचना!
लेकिन संवारना इनको कहाँ है....ये तो अपनी जगह सहज ही हैं...संवारना तो हमें खुद अपने आपको है....अपनी आत्मा को है....अपने ह्रदय को है.....कि आदमी के भीतर के आदमी को हम देख सकें.....ना कि उसके महज रूप को.....!!बाकी आपके भाव वाकई अच्छे हैं.....!!
अभिन्न जी,
यह तो अपने क्षैत्र की महिमा ही है कि पुरोधा श्री निराला जी ने भी लिखा है " वह तौड़ती पत्थर.. मैनें उसे देखा इलाहाबाद के पथ पर...."।
अपनी भावनाओं का प्रभावी संप्रेषण करती हुई कविता अच्छी लगी।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
आपका कवितायन पर आने का आभार।
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