पहले तो बात सुन के ज़रा डोलते हैं हम,
फिर एक एक करके पर्त खोलते हैं हम,
कुछ मूल जानने की लगाते हैं हम जुगत,
कुछ उसमें छुपे सत्य को टटोलते हैं हम,
जब लगता है ये बात सुनाने के योग्य है,
भाषा की चाशनी में भाव घोलते हैं हम,
कसते हैं कसौटी पे हृदय के कलाम को,
तब जाके चार शब्द कहीं बोलते हैं हम।
महा लिख्खाड़
-
आसपास में सब चेतन है1 day ago
-
फिर हम क्यूँ माने किसी की बात!6 days ago
-
-
बाग में टपके आम बीनने का मजा7 months ago
-
गणतंत्र दिवस २०२०5 years ago
-
राक्षस5 years ago
-
-
इंतज़ामअली और इंतज़ामुद्दीन5 years ago
-
कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण और अर्जुन7 years ago
-
Demonetization and Mobile Banking8 years ago
-
मछली का नाम मार्गरेटा..!!10 years ago
नाप तोल
1 Aug2022 - 240
1 Jul2022 - 246
1 Jun2022 - 242
1 Jan 2022 - 237
1 Jun 2021 - 230
1 Jan 2021 - 221
1 Jun 2020 - 256
सामयिक कवि की कथा
Nov 16, 2006प्रेषक: अभिनव @ 11/16/2006
Labels: गीतिका
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
6 प्रतिक्रियाएं:
कविता अच्छी लगी....कथा ऐसी सिर्फ कवि कि ही नहीं ..अनजान लोगों से दो शब्द कहने में भी ऐसी कविता रच जाती है..
प्रिय अभिनव,
बहुत ही अच्छी रचना है.साधुवाद स्वीकारें . बस 'हृदय की कलाम' की जगह 'हृदय के कलाम' कर दें . उर्दू का 'कलाम'शब्द जो वाक्य/वचन अथवा कथन का अर्थ देता है, पुल्लिंग है . हां 'कलम' शब्द जरूर स्त्रीलिंग है.
लिखने से पहले कोई भी, चिट्ठे पे टिप्पणी
रख कर तुला में शब्द हर इक तोलते हैं हम
धन्यवाद प्रियंकर जी,
यह वास्तविकता में वही था जो आपने सुझाया, परंतु टंकण में त्रुटी हो गई थी।
अच्छा किया रचना प्रक्रिया बता दी.
सुन्दर रचना है ...
है क्षणिक उत्तेजना या जग का इस में है भला
बात हर कहनें से पहले तोलते हैं हम
Post a Comment