युग धर्म - एक चेतना गीत

Jun 11, 2011

एक योगाचार्य नें मशाल उठाई,
गाँव गाँव चेतना की ज्योति जगाई,
प्रेरणा दी देशवासियों को योग से,
मुक्त किया कितनों को कष्ट रोग से,
भ्रष्टता को जड़ से मिटाने के लिए,
लड़ा दूसरा स्वराज लाने के लिए,
लाठियां पड़ीं औ दगे हैं आंसू बम,
क्रांति की देखो चली चली रे पवन.

घोटालों पे घोटालों का है अटूट क्रम,
टूट चुका गांधीजी का रामराजी भ्रम,
खीसें हैं निपोर रहे नेता बेशरम,
मालियों से कर रहा बगावत चमन,
गूंजने लगा है जयघोष से गगन,
मुट्ठियों को भींचे हुए देखेंगे न हम,
राष्ट्र चेतना में सराबोर जन जन,
क्रांति की देखो चली चली रे पवन.

अपने कपट को छुपाने के लिए,
भारत को बेच बेच खाने के लिए,
काले धन में सदा नहाने के लिए,
खाता स्विस बैंक का बचने के लिए,
आन्दोलन दो कुचल ज़ोर से,
देश कहीं जाग नहीं जाए शोर से,
जो उठाये सिर उसे कर दो कलम.
मुट्ठियों को भींचे हुए देखेंगे न हम.

अ से आर्यव्रत की वे आन बान हैं,
न से न्यायशीलता का नव विधान हैं,
ना से नागरिकों की नयी पुकार हैं,
ह हमारी भारती के पुष्प हार हैं,
जा से जानदार हैं जुझारू वीर हैं,
रे से रेशमी उजालों के फ़कीर हैं,
अन्ना जी सिखाते हमें युग का धरम,
क्रांति की देखो चली चली रे पवन.

देश भूल सकता न परशु राम को,
विश्वामित्र मांग ले गए थे राम को,
विश्व गुरु के दिए गीता के ज्ञान को,
या दधीचि के महान अस्थिदान को,
दुनिया जगाते गांधी के प्रबंध को,
चाणक्य नें पाठ पढाया जो नन्द को,
संत हैं सिखाते हमें जीने का चलन,
क्रांति की देखो चली चली रे पवन.

बा से बाबाजी हमारे बेमिसाल हैं,
बा से बाहरी कुटिलता का काल हैं,
रा हमारे राष्ट्र की वे पहचान हैं,
म से मातृभूमि का मधुर गान हैं,
दे से देवताओं के वे समतुल्य हैं,
व विजयी, वरदानी हैं अतुल्य हैं,
इस युग के पतंजलि को नमन.
क्रांति की देखो चली चली रे पवन.

कालिमा नें उंगली उठाई धुप पे,
टिपण्णी की बाबाजी के नारी रूप पे,
सामने की दुष्टता का जो न हो चरम,
तो उठाने पड़ते हैं ऐसे भी कदम,
भस्मासुर नहीं यूँ ही मरा था,
भगवान नें भी नारी रूप धरा था,
भक्त नें किया है उसी का अनुकरण.
क्रांति की देखो चली चली रे पवन.

1 प्रतिक्रियाएं:

Mohit said...

Bahut sahi Abhinav Bhai!