सम्बन्ध अभी जीवित है - श्रद्धांजलि

Aug 21, 2009

भारतीय साहित्य जगत को पिछले कुछ महीनों में जो आघात पहुंचे हैं वे बड़े गहरे हैं. साहित्य ऋषि विष्णु प्रभाकर के देहवसान के एक सप्ताह के भीतर संस्कृत के परम विद्वान आचार्य रामनाथ सुमन के जाने का समाचार आया. अभी साहित्य संसार प्रातः स्मरणीय सायं वन्दनीय आचार्य रामनाथ सुमन जी के परमधाम गमन के शोक से उबारा ही नहीं था कि वीर रस के प्रख्यात कवि छैल बिहारी वाजपेयी 'बाण' के जाने की सूचना प्राप्त हुई. जब तक काव्य मंचों पर पड़ी ये काली छाया टलती, भोपाल के पास एक कार दुर्घटना हुई जिसमें हास्य सम्राट ओमप्रकाश आदित्य, लाड़ सिंह गुर्जर और नीरज पुरी भी माता सरस्वती की गोद में चले गए. फिर अल्हड़ बीकानेरी जी के देहवसान की सूचना प्राप्त हुई और अभी कुछ देर पहले फ़ोन पर बजने वाली दुर्दांत रिंगटोन नें ओम व्यास ओम के जाने का समाचार सुनाया है. ओम व्यास एक महीने तक मृत्यु से साथ संघर्ष करते रहे और अंततः हम सबको छोड़ कर चले गए. जीवन की नश्वरता और क्षणभंगुरता का भान किसे नहीं होता. पर यह भान सदा कहीं छिपा सा रहता है. हमको ऐसा लगता है कि जो हमारे परिचित हैं हमारे प्रिय हैं उनका कुछ बुरा नहीं हो सकता और जब एक के बाद एक इस प्रकार की सूचनाएं आती हैं तो हृदय आघात सहने का अभ्यस्त सा होने का प्रयास करने लगता है. इन महानुभावों के गमन ने हिंदी साहित्य जगत में एक ऐसी रिक्तता भर दी है जिसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकेगी.

'आवारा मसीहा' और 'अर्धनारीश्वर' जैसे अद्भुत उपन्यासों के रचयिता विष्णु प्रभाकर नें कभी अपने लेखकीय स्वाभिमान के साथ समझौता नहीं किया. 'पद्मभूषण' की उपाधि ठुकराने वाले इस लेखक की ख्याति सरकारी सम्मानों से नहीं अपितु उसकी लेखनी की धार से तथा पाठकों के स्नेह के बल पर सारे संसार में अपनी सुगंध बिखेर रही है. गांधीजी के आदर्शों पर जीवन पर्यंत चलने वाले विष्णु प्रभाकर देशभक्ति और मानवीय संवेदनाओं के सच्चे सिपाही थे. किसी ने ठीक ही कहा है कि, विष्णु प्रभाकर के जाने से साहित्य 'पंखहीन' हो गया है.

आचार्य रामनाथ सुमन पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे. जब पिछले वर्ष मुझे उनके दर्शन का लाभ प्राप्त हुआ तो ऐसा लगा मानो वे भारतीयता का एक महासागर हैं जिसकी लहर लहर अपने भीतर से मोती लाकर तट पर छोड़ती जा रही है. कुछ माह पूर्व ही उनके सुपुत्र और सुकवि डा वागीश दिनकर से आचार्य जी की नयी कविता सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. उस कविता की कुछ पंक्तियां अभी भी मानस के पटल पर उभरती रहती हैं.

नश्वर है यह देह अनश्वर अपने आत्माराम हैं,
जिनकी इच्छा बिना न जग में पूरे होते काम हैं,
हमको प्रभु नें भेजा देखो हमनें जीवन खूब जिया,
अच्छा पहना अच्छा गहना अच्छा खाया और पिया,
हम जग में रोते आये थे हंसते अपनी कटी उमर,
हमने राह गही जो अपनी वह औरों को बनी डगर,
हम उपवन के वही सुमन जो खिलते आठों याम हैं,

उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी के पूर्व अध्यक्ष आचार्य सुमन नें अनेक ग्रंथों की रचना की है. बाणभट्ट द्वारा रचित संस्कृत ग्रन्थ कादम्बरी के पर की गयी उनकी टीकाएं अद्भुत हैं. यह टीकाएं अब अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं. आचार्य जी का हिंदी और संस्कृत दोनों पर सामान रूप से अधिकार था और जब वे बोलते थे तो ऐसा लगता था मानो वे बोलते ही रहे और सब मंत्रमुग्ध होकर उनको सुनते ही रहें. पूज्य आचार्य जी को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी की हम अपने जीवन में भारतीय दर्शन को उतारने का प्रयास करें.

पंडित छैल बिहारी वाजपेयी 'बाण' उत्तर भारत के लोकप्रिय वीर रस के कवियों में से एक थे. जब वे मंच पर गरज गरज कर अपनी रचनायें सुनाते थे तो अद्भुत समां बाँध देते थे. अमेरिका में होने वाले एक कवि सम्मलेन में बाण जी के सुपुत्र और वीर रस के राष्ट्रीय कवि वेदव्रत वाजपेयी को आमंत्रित किया गया था. कवि सम्मलेन वाले दिन मैंने जब न्यू जर्सी बात करी तो डा सुनील जोगी नें ये दुखद सूचना दी कि किस कारण से वेदव्रत जी नहीं आ पाए हैं. बाण जी के निधन से अवधी कविता को मंच पर पूरी गरिमा से प्रस्तुत करने वाला एक सैलानी कम हो गया है. प्रखर राष्ट्रीयता की भावना को हिम्मत के साथ बोलने तथा श्रोताओं में अग्नि धर्मा रचनाओं को पढने वाला एक शिखर पुरुष हमारे बीच से चला गया है. उनकी कुछ पंक्तियां अभी भी मेरी स्मृतियों में हैं.

देखते ही देखते गंवाया गया बंग और वक्त हाथ आया तो मिलाया भी गया नहीं,
सवा लाख शत्रुओं के शास्त्र डालने के बाद बंकिम धरा को अपनाया भी गया नहीं,
दाहिड नरेश की वसुंधरा कराची पर झंडा ये तिरंगा लहराया भी गया नहीं,
रोज़ राष्ट्र गान में पढाया गया सिंध किन्तु हिंद मानचित्र में दिखाया भी गया नहीं.

आदित्य दा से हुयी पहली मुलाकात मानो मेरी आँखों के आगे एक बार पुनः घूम गयी. सन् ९९ के दिसम्बर के आस पास कि बात है. रुड़की विश्वविद्यालय अपना वार्षिकोत्सव थोम्सो मना रहा था. मैं भी बरेली से अपने कालेज की टीम लेकर वहां पहुंचा था. अनेक प्रतियोगिताएं होनी थीं तथा रुड़की के छात्रों नें सब व्यवस्था बहुत भली प्रकार से संभल रखी थी. उस समय रुड़की के कार्यक्रमों में नियमित कवि सम्मलेन होते थे. मधुरजी कवियों को बुलाने और उनके रुकने आदि कि व्यवस्था करते थे. जब उनको पता चला कि रूहेलखंड विवि के छात्रों में से एक कविता लिखता है तो उन्होंने मुझे भी मंच पर बुला कर बैठा दिया. आदित्यजी कार्यक्रम कि अध्यक्षता कर रहे थे. तब तक मुझपर हास्य रस का बुखार पूरी तरह नहीं चढ़ा था और मैं मंच पर वीर रस की रचनायें ही पढ़ा करता था. जब आदित्यजी काव्य पाठ करने आये तो उन्होंने सभी कवियों के काव्य पाठ पर कुछ शब्द कहे और मुझे भी आर्शीवाद देते हुए कहा की ये लड़का लिखता अच्छा है पर अपनी ऊर्जा व्यर्थ में बर्बाद कर रहा है. इसके बाद उन्होंने वीर रस के कवियों को समर्पित करते हुए हास्य रस की एक रचना पढ़ी. इसके बाद एक एक करके उन्होंने अपने पिटारे से अनेक मनभावन कविताएं श्रोताओं को सुनायीं. शब्दों को एक विशेष रूप से उच्चारित करने का उनका अंदाज़ निराला था. 'गोरी बैठ छत पर', 'संपादक के नाम पत्र', 'लापता गधा' और 'दूर दूर बैठे मुझे घूर घूर देखते हो' आदि रचनायें आज के हास्य रस के कवियों के लिए एक मापदंड के रूप में स्थापित हैं.

कार्यक्रम की समाप्ति पर उनका ऑटोग्राफ लेने के लिए छात्रों की लाइन लग गयी. उन्होंने मुस्कुराते हुए सबको आटोग्राफ दिया और फिर सभी कवि आगे बढे. रस्ते में मैंने उनसे पूछा कि, 'अच्छा लिखने के लिए क्या करना चाहिए?'. वे बोले की खूब पढना चाहिए. मैंने पूछा कि क्या पढना चाहिए तो इसपर वे हँसे और बोले की पढना शुरू करो तो तुमको स्वयं पता चल जाएगा की तुम क्या पढने के योग्य हो. हिंदी के कवि होने के नाते तुम ये अवशय जानना चाहोगे की भारतीय साहित्य में जो कुछ भी श्रेष्ठ लिखा गया है वो श्रेष्ठ क्यों है. इस घटना के बाद भी दो तीन बार मुझे उनके दर्शन और सानिध्य का लाभ प्राप्त हुआ. अंतिम बार उनके दर्शन पिछले वर्ष दिल्ली के फिक्की सभागृह में आयोजित एक कार्यक्रम में हुए. इस कार्यक्रम में उन्होंने उन कवियों की कविताएं सुनायीं थीं जो की इस दुनिया को अलविदा कह चुके थे. किसे पता था की आदित्यजी इस प्रकार इस संसार को छोड़कर जाने वाले हैं.


पिछले कुछ समय से आदित्य जी को मैंने मंचों पर ये छंद पढ़ते सुना था.

दाल रोटी दी तो दाल रोटी खाके सो गया मैं,
आँसू तूने दिये आँसू पीये जा रहा हूँ मैं,
दुख तूने दिये मैने कभी न शिकायत की,
सुख दिये तूने सुख लिए जा रहा हूँ मैं,
पतित हूँ मैं तो तू भी पतित पावन है,
जो तू कराता है वही किए जा रहा हूँ मैं,
मृत्यु का बुलावा जब भेजेगा तो आ जाऊँगा,
तूने कहा जिये जा तो जिये जा रहा हूँ मैं.

अल्हड़ जी की कविताएं अपने भीतर एक पूरी कहानी समेटे रहती थीं. जब वे अपनी "होठों से छुआ के मूंगफली महबूब को मारा करते हैं" कव्वाली पूरी मस्ती के साथ गाते थे तो मानो पूरा वातावरण तालियों में डूब जाता था. वे मंच पर पूरे अल्हड़पन के साथ अपनी रचनायें पढ़ते थे और बड़ी सरलता से अपनी बात श्रोता तक पहुंचाने के हुनर में माहिर थे. अल्हड़ जी की निम्न पंक्तियां सदा उनके तेवर हमको याद दिलाती रहेंगी.

खुद पे हंसने की कोई राह निकालूँ तो हंसूं,
अभी हँसता हूँ ज़रा मूड में आ लूं तो हंसूं,
जिनकी साँसों में कभी गंध न फूलों की बसी,
शोख कलियों पें जिन्होंने सदा फब्ती ही कसी,
जिनकी पलकों के चमन में कोई तितली न फंसी,
जिनके होठों पे कभी भूले से आई न हंसी,
ऐसे मनहूसों को जी भर के हंसा लूं तो हंसूं,
अभी हँसता हूँ ज़रा मूड में आ लूं तो हंसूं.

लाड़ सिंह गुर्जर मध्य प्रदेश के एक बहुत छोटे से गाँव से उठकर राष्ट्रीय स्तर के मंचों पर पहचान बनाने वाले कवि थे. मंच पर वे अनेक रसों कि कविताएं पढ़ते थे पर उनका मुख्य स्वर वीर रस का रहता था. एक सुरीले कंठ के धनी लाड़ सिंह गुर्जर जब अपने लोकगीत सुनाते थे तो सबको आनंद विभोर कर देते थे. उनका इस प्रकार असमय जाना नियति कि कुटिलता का सूचक है.

नीरज पुरी मेरे प्रिय कवियों से एक थे. उनकी रचनाओं में छिपा व्यंग बड़ा तीखा होता था. नीरज पुरी एक श्रेष्ठ हास्य कवि तो थे ही पर कविता से इतर भी उनका स्वभाव बड़ा हंसमुख था. बात बात में लोगों को ठहाके लगाने के लिए मजबूर कर देना उनके दैनिक जीवन का हिस्सा था. हाथ में लिए हुए काम को पूरी कर्मठता के साथ निभाना उनकी एक बड़ी खूबी थी. एक बार वे कवि सम्मलेन से लौट कर आये तो पता चला की बैंक में कोई आवश्यक काम आ गया है. फिर क्या था अपने सहकर्मियों के साथ वे भी लगातार अड़तालीस घंटे बैंक में काम करते रहे. जिस बैंक की नौकरी के लिए उन्होंने त्याग किये थे एक बार ऐसा समय भी आया जब उनको वहां से निकाले जाने की नौबत आ गयी. पर नीरज जी नें कभी हिम्मत नहीं हारी और वो कठिन समय भी बीत गया तथा बैंक नें उन्हें ससम्मान दुबारा नियुक्त कर लिया. बाद में अनेक अवसरों पर उसी बैंक में नीरज जी के सम्मान में कार्यक्रम भी आयोजित हुए. नीरजजी की कविताएं उनके कालेज के समय से ही लोगों में अपना स्थान बनाने लगी थीं. मुझे आज भी याद है की जब २००५ में उनको काका हाथरसी सम्मान से सम्मानित किया गया तो वे कितने प्रसन्न थे. मैंने जब उनको शुभकामनाएं दीं तो उन्होंने धन्यवाद दिया और फिर बड़ी विनम्रता से बोले, की अरे भाई, 'पप्पू पास हो गया'. उस दिन मैंने उनकी आँखों में आगे और भी बहुत कुछ करने का और और अपनी संप्रेषण धर्मी रचनाओं में संसार को समेटने का भाव देखा था.

ओम व्यास की कविताएं तथा उनका अनूठा अंदाज़ सबको बहुत पसंद आता था. व्यवहार में सरलता ओम व्यास का एक अनूठा गुण था. उनकी कुछ पंक्तियां उनके आचरण कि पुनरुक्ति सी करती प्रतीत होती हैं.

विश्व में किसी भी देवता का स्थान दूजा है,
माँ-बाप की सेवा ही सबसे बडी पूजा है,
विश्व में किसी भी तीर्थ की यात्रा व्यर्थ हैं,
यदि बेटे के होते माँ-बाप असमर्थ हैं,
वो खुशनसीब हैं माँ-बाप जिनके साथ होते हैं,
क्योंकि माँ-बाप के आशिषों के हज़ारों हाथ होते हैं।

संजय पटेल के ब्लाग पर नितिन गामी नें ओम व्यास कि अंतिम यात्रा के विषय में बताया है कि, ''जगह जगह स्टेज बनाकर, लाउडस्पीकर लगाकर पूरे उज्जैन में ओम व्यास की पूर्व-रेकॉर्डेड रचनाओं का प्रसारण हो रहा था. बड़ी बात यह है कि ये काम न प्रशासन ने किया , न किसी नामचीन संस्था ने, आम दुकानदारों ने बाज़ार बंद रखकर ओम व्यास के लिये यह काव्यात्मक श्रध्दांजली देने का ग़ज़ब का कारनामा किया. एक कवि की ताकत आम आदमी होता है, जिसे वह न नाम से जानता है , न सूरत से ...लेकिन बस अपने प्यारे कवि से मोहब्बत करता है.आज उज्जैन की सड़कों पर बना ये मंज़र हमारे नगर को पहचान देने वाले पं.सूर्यनारायण व्यास,शिवमंगल सिंह सुमन और सिध्देश्वर सेन की कड़ी में एक और नाम जोड़ गया....ओम व्यास "ओम"'. ये पढ़कर कहीं न कहीं अश्रुपूरित नेत्रों को ऐसा लगा कि अभी भी हमारे देश में कवि और आम लोगों के बीच ह्रदय का एक सम्बन्ध जीवित है.

हिंदी साहित्य के लिए तथा कविता के मंचों के लिए यह एक कभी न पूरी होने वाली क्षति है. जून २००९ तो हमारे काव्य मंचों पर वज्रपात के माह के रूप में याद किया जाएगा. कहा जाता है की कलाकार अपनी कला के माध्यम से सदा जीवित रहता है. ये रचनाकार तब तक अमर रहेंगे जब तक इनके शब्दों को सुनकर लोगों के चेहरों पर मुस्कुराहटें बनी रहेंगी. मैं अपनी, हिंदी चेतना परिवार की तथा संपूर्ण काव्य जगत की ओर से कलम के इन सिपाहियों के प्रति श्रध्हांजलि अर्पित करता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वे इनकी आत्मा को सद्गति प्रदान करें.


नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।

- हिंदी चेतना से साभार.

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