कब भला संन्यास छूटेगा तुम्हारा

Jul 9, 2009


रेत मुट्ठी से फिसलती जा रही है,
लौटने को है लहर छूकर किनारा,
चन्द्रमा की सौम्य किरणें पूछती हैं,
कब भला संन्यास छूटेगा तुम्हारा.

मौन रहने का अनूठा प्रण लिए हो,
बंद खिड़की और दरवाज़े किये हो,
स्वयं से छिपते, स्वयं को खोजते हो,
सत्य, मिथ्या, प्रेम, निष्ठा सोचते हो,
घुल चुका जिसमें सृजन का गीत अनुपम,
कब भला वो बोल फूटेगा तुम्हारा.

स्वप्न  भी कितने अधूरे अधबने हैं,
मन की पूछो बात तो हम अनमने हैं,
दर्द नें अब दोस्ती कर ली दवा से,
छत पे जलता दीप कहता है हवा से,
कब मिटेंगी दूरियां, कब हम मिलेंगे,
कब भला ये धैर्य टूटेगा तुम्हारा,

तूलिका से रंग का अनुराग हो तुम,
कृष्ण की वंशी का मधुरिम राग हो तुम,
झुंड से भटके हिरण सी है चपलता,
नैन में नटखटपना मुख पर सरलता,
जो सकल व्यक्तित्व आकर्षण भरा है,
वो भला क्यों चैन लूटे न हमारा,

इस ह्रदय के गीत की तुम गायिका हो,
ज़िन्दगी के मंच की तुम नायिका हो,
कुछ कंटीली, कुछ सुनहरी रहगुज़र है,
कष्ट सह कर मुस्कुराने का हुनर है,
ईश्वर का अंश है तुममें समाहित,
चाहता हूँ भक्त बन जाऊं तुम्हारा.

रेत मुट्ठी से फिसलती जा रही है,
लौटने को है लहर छूकर किनारा,
चन्द्रमा की सौम्य किरणें पूछती हैं,
कब भला संन्यास छूटेगा तुम्हारा.


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