तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में

Jan 3, 2009

तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,

जब अयोग्य जुगनू सूरज के सिंहासन पर दिखता है,
जब खोटा पत्थर का टुकड़ा कनक कणी सा बिकता है,
जब शब्दों का मोल आँकने वाला मापक बहरा है,
जब असत्य परपंच अनर्गल संभाषण ही टिकता है,
मिलता है सम्मान उसी संभाषण को श्लोकों सा,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,

 

मैंने पहचाना फूलों को गंधों के व्याकरणों से,
और बाग को पहचाना है माली के आचरणों से,
बगिया की शोभा है रंग बिरंगो फूलों की क्यारी,
एक रंग के फूलों को जब अलग निकाला जाता है,
सिर्फ उन्हें जब राजकुमारों जैसे पाला जाता है,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,

 

मेरे नियम ग़लत थे जो मैं मानवता का हामी था,
सत्य बोलने को प्रस्तुत था भोलापन अनुगामी था,
अपने साथी के सिर पर मैं पाँव नहीं धर सकता था,
लाभ हानि की खातिर झूठी बात नहीं कर सकता था,
आज खेल में जब शकुनि के पासे रंग दिखाते हैं,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,

 

जब पुस्तक की शोभा भर होती हों समता की बातें,
झूम नशे में जब मेहनत का मोल लगाती हों रातें,
आदर्शों के मूल धंसे हों येन केन और प्रकारेन में,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में.


_______________________
Abhinav Shukla
206-694-3353
P Please consider the environment.

5 प्रतिक्रियाएं:

रंजना said...

सर्वप्रथम इस सुंदर भावपूर्ण रचना हेतु बधाई.

आपके मन के ये विचार :

मेरे नियम ग़लत थे जो मैं मानवता का हामी था,
सत्य बोलने को प्रस्तुत था भोलापन अनुगामी था,
अपने साथी के सिर पर मैं पाँव नहीं धर सकता था,
लाभ हानि की खातिर झूठी बात नहीं कर सकता था,
आज खेल में जब शकुनि के पासे रंग दिखाते हैं,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में !

बड़े ही सहज हैं.छल प्रपंच और दुनियादारी के नाम पर आचरण की पवित्रता नष्ट न करने वाले लोगों के मन में यह प्रश्न उठता ही है.व्यक्ति जब स्वयं को ठगा छला हुआ पीड़ित पाता है तो यह क्षोभ स्वाभाविक ही मन में आता है कि मेरे अच्छेपन का क्या परिणाम मिला मुझे.....
परन्तु शांत मन से सोचने पर उत्तर मिल जाता है कि हालाँकि पांडव असंख्य कष्टों को भोगते हुए वन वन भटके,पर शकुनी के हिस्से क्षणिक सुख ही आया. स्थायी रूप से उसके हिस्से अपयश अशांति और पीड़ा(अपने प्रियजनों को खोने का) ही आई.
वैसे भी हम सन्मार्ग पर इसलिए नही चलते कि इसपर चलकर हमें धन वैभव पड़ या ऐश्वर्या पाना है.बल्कि हम इसलिए चलते हैं कि ,इस पथ पर चलकर ही हमें शान्ति और संतोष मिलता है.

Unknown said...

मेरे नियम ग़लत थे जो मैं मानवता का हामी था,
सत्य बोलने को प्रस्तुत था भोलापन अनुगामी था,
अपने साथी के सिर पर मैं पाँव नहीं धर सकता था,
लाभ हानि की खातिर झूठी बात नहीं कर सकता था,
आज खेल में जब शकुनि के पासे रंग दिखाते हैं,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,


बहुत ही सुंदर रचना....

ghughutibasuti said...

सुन्दर रचना है। परन्तु गलत को आगे बढ़ाने और सही को पीछे धकेलने वाले भी हम ही हैं।
घुघूती बासूती

अद्‍भुत रचना अभिनव जी...मन प्रसन्न कर दिया इन सुंदर शब्दों के सुंदर संयोजन ने और अप्रतिम कटाक्षों ने....भई वाह
"‍जब अयोग्य जुगनू सूरज के सिंहासन पर दिखता है,जब खोटा पत्थर का टुकड़ा कनक कणी सा बिकता है,जब शब्दों का मोल आँकने वाला मापक बहरा है,जब असत्य परपंच अनर्गल संभाषण ही टिकता है,मिलता है सम्मान उसी संभाषण को श्लोकों सा,तब लगता है ठगा गया मैं जीवन के लेन देन में"
....कई-कई बार पढ़ गया हूं.

Reetesh Gupta said...

बहुत सुंदर अभिनव भाईया ...आज के परिद्रश्य में यह सब कुछ देखने को मिलता है...एक कवि ह्रदय की अभिव्यक्ति पढ़कर अच्छा लगा...
रंजना जी की टिप्पणी भी अच्छी लगी...बधाई