एक और संबोधन गीत

Jan 21, 2008

राकेश खंडेलवाल जी का "सम्बोधन पर आकर अटकी" गीत पढने के बाद हमने भी एक पत्र लिखने का प्रयास किया और बात संबोधन पर अटक गई.. आप भी सुन लीजिये,

कलम उठाई लिखने बैठा पत्र तुम्हे में पूरे मन से,
सोच रहा हूँ शुरू करूं इसको आख़िर किस संबोधन से,

लिखूं क्षुब्ध अरमानों की अर्थी पर बिखरे फूलों वाली,
या अभिमानों को भर कर अपमानित करती भूलों वाली,
घन घमंड परिपूर्ण नित्य रहती जो लड़ने को आतुर,
सुरसा लिखूं या लिखूं हिडिम्बा खतरनाक शूलों वाली,

मैंने निर्मल प्रेम दिया था तुमको पावन गंगा सा,
भावों की संचित पूँजी को तौल रही काग़ज़ के धन से,
कलम उठाई लिखने बैठा पत्र तुम्हे में पूरे मन से,
सोच रहा हूँ शुरू करूं इसको आख़िर किस संबोधन से,

कहूं मैं गीतों का विराम या ह्रदय भेदती फाँस कोई,
न निगली न उगली जाती कंठ में अटकी साँस कोई,
पग पग पर पीड़ा देने का जिसने हो संकल्प लिया,
या सम्मुख इस जग के चलता सस्ता सा उपहास कोई,

तुमको कह सकता हूँ अपनी धैर्य परीक्षा का साधन,
जिसमें बस कांटे उगते हों उपमा दूँ या उस उपवन से,
कलम उठाई लिखने बैठा पत्र तुम्हे में पूरे मन से,
सोच रहा हूँ शुरू करूं इसको आख़िर किस संबोधन से,

2 प्रतिक्रियाएं:

अभिनव आपने बहुत अच्‍छा प्रयोग किया है किंतु कुछ कहना है वो मैं आपके मेल पर कहूंगा । शब्‍द अच्‍छे हैं और कहने का ढंग भी अच्‍छा है

बहुत सुन्दर...:)