ये ग़ज़लें अपनी दुनिया में हमें यूँ खींच लेती हैं,
ज्यों माएँ अपने कमबख़्तों को बाँहों भींच लेती हैं,
कभी तो गाते गाते फूट कर हम रोने लगते हैं,
ये आँखें दिल की मुरझाती सी बगिया सींच लेती हैं,
ये ज़्यादा रोशनी बर्दाश्त तो कर ही नहीं पातीं
ज़रा तुम सामने आती हो खुद को मींच लेती हैं।
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ये ग़ज़लें अपनी दुनिया में हमें यूँ खींच लेती हैं
Oct 6, 2007प्रेषक: अभिनव @ 10/06/2007
Labels: गीतिका
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5 प्रतिक्रियाएं:
ये ग़ज़लें अपनी दुनिया में हमें यूँ खींच लेती हैं,
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वास्तव में! गजल मुझे विलक्षण विधा लगती है कविता की.
अभिनव जी कृपया तीसरे शे'र के मिसरा उला में बर्दाश्त को देखें ये कुछ समस्या पैदा कर रहा है और हां इस शेर में एक और समस्या है स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि कौन ( आंखें) खुद को मींच लेती हैं ।
और हां मतले में मिसरा सानी में ज्यों को जों करके और गिरा कर लघु बना कर पढ़ना होगा तब काम चलेगा इसलिये ज्यों को जों ही कर दें तो अच्छा होगा ।
सच में ग़ज़ल डुबो देती है ख़ुद में
बहुत ख़ूब !!
कभी तो गाते गाते फूट कर हम रोने लगते हैं,
ये आँखें दिल की मुरझाती सी बगिया सींच लेती हैं,
दिल की बात कह दी आपने अभिनव जी ! बहुत खूब
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