वह समाज मर जाता है जिसकी कविता डरती है

Feb 2, 2007

डा वागीश दिनकर, पिलखुआ (गाज़ियाबाद) में रहते हैं। हिन्दी भाषा पर उनका अधिपत्य है तथा बहुत सुंदर कविताएँ लिखते हैं। उनकी एक प्रसिद्ध रचना नीचे टाईप कर रहा हूँ। "युग की सुप्त शिराओं में कविता शोणित भरती है, वह समाज मर जाता है जिसकी कविता डरती है," यह पंक्तियाँ हरि ओम पवार जी के एलबम 'अग्नि सागर' के संचालन में सुनी हैं। पंक्तियों में अपने महाकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' जी का तेवर झलकता है। वागीश जी के नाम में भी दिनकर का समावेश है अतः दिनकर की आभा भी उनकी रचनाओं को दीप्यमान कर रही है।

सुनते हैं कवि अपने युग का सच्चा प्रतिनिधि होता,
युग के हंसने पर कवि हंसता युग रोता कवि रोता,

कविता कवि के भाव जगत का चित्र हुआ करती है,
सच्चे कवि की कविता सच्चा मित्र हुआ करती है,

कविता वैभव के विलास में संयम सिखलाती है,
घोर निराशा में भी कविता आशा बन जाती है,

युग की सुप्त शिराओं में कविता शोणित भरती है,
वह समाज मर जाता है जिसकी कविता डरती है,

हृदय सुहाते गीत सुनाना कवि का धर्म नहीं है,
शासक को भी दिशा दिखाए कवि का कर्म यही है,

अपने घर में रहने वाला जब आतंक मचाए,
घर का मालिक ही घर में जब शरणार्थी बन जाए,

बहन बेटियों अबलाओं की लाज ना जब बच पाए,
मज़हब का उन्माद भाईचारे में आग लगाए,

जब सच को सच कहने का साहस समाप्त हो जाए,
दूभर हो जाए जीना विष पीकर मरना भाए,

तब कविता नूतन युग का निर्माण किया करती है,
निर्बल को बल प्राणहीन को त्राण दिया करती है,

कविता जन जन को विवेक की तुला दिया करती है,
कविता मन मन के भेदों को भुला दिया करती है,

'दिनकर' की है चाह कि हम सब भेदभाव को भूलें,
मात भारती की गरिमा भी उच्च शिखर को छू ले।

कविः डा वागीश दिनकर

2 प्रतिक्रियाएं:

कविता जब वरदाई करे तो बदला है इतिहास
और चन्द्र गंधर्व जगाते मरुथल में मधुमास

जो कवि डरा, सही मानों में कवि नहीं होता
कैसे भी हों क्षण, विवेक को कभी नहीं खोता

बिस्मिल हों, प्रदीप हों या हो भरत व्यास की वाणी
संवरी सदा अवस्थी के स्वर में कविता कल्याणी

तुलसी की कविता ने सबको एक सूत्र में बाँधा
मीरा के कवित्त ने अपने प्रियतम को आराधा

बेअर्थी तुकबन्दी क्प कविता कहना गलती है
वह समाज मर जाता है, जिसकी कविता डरती है

Divine India said...

सच का चित्रण किया गया है…कवि का हृदय अपने आस पास के मंजर मे ही टटोलता है अपनी प्रेरणा के तस्वीर को…मगर दुनियाँ आज इतनी जटिल हो चुकी है कि आज का कवि भी चाटुकार हो गया है…और जब आप मौका परस्त हो जाते हैं तो आपकी रचना…का…ओज समाप्त हो जाता है…।